चिंतन व तर्क क्या है । समझिए बहुत ही सरल भाषा मे परीक्षा मे पूछे जाते है अधिकांशतः इस टॉपिक मे से प्रश्न

 



चिन्तन (Thinking)

चिन्तन एक उच्च ज्ञानात्मक (cognitive) प्रक्रिया है, जिसके द्वारा ज्ञान संगठित होता है। इस मानसिक प्रक्रिया में  स्मृति, कल्पना आदि मानसिक प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। मानवीय जीवन समस्याओं से भरा हुआ है। हम एक समस्या का हल खोज नहीं पाते, कि दूसरी सामने उपस्थित हो जाती है। ये समस्याएँ प्रयत्न करने से हल हो जाती हैं और कभी कभी प्रयत्न ही चिन्तन को जन्म देता है।

चिन्तन का अर्थ एवं परिभाषाएँ दर्शनशास्त्र ने यह सिद्ध कर दिया है कि विश्व की प्रगति मानव की चिन्तन शक्ति पर निर्भर रहती है। चिन्तन के द्वारा वास्तविकता का पता लगाया जाता है और वास्तविकता विज्ञान को जन्म देती है। अतः चिन्तन शब्द का प्रयोग याद, कल्पना और अनुमान आदि रूपों में प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक प्रकार के चिन्तन की कोई न कोई दिशा अथवा लक्ष्य अवश्य होता है। चिन्तन में बालक क्रियाशील रहता है। चिन्तन वस्तुओं, प्रतिमाओं और प्रतीकों आदि किसी के भी सम्बन्ध में हो सकता है। चिन्तन के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने में निम्न मत सहायक है-

(1) वैलेन्टाइन के अनुसार- ‘‘मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से चिन्तनशब्द का प्रयोग उस क्रिया के लिये किया जाता है जिसमें श्रृंखलाबद्ध विचार किसी लक्ष्य या उद्देश्य की ओर अविराम गति से प्रवाहित होते है।‘‘

(2) गैरेट के अनुसार-‘‘चिन्तन एक प्रकार का अव्यक्त एवं रहस्यपूर्ण व्यवहार होता है, जिसमें सामान्य रूप से प्रतीकों (बिम्बों, विचारों, प्रत्ययों) का प्रयोग होता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि चिन्तन एक ज्ञानात्मक क्रिया है। यह स्वतः ही नहीं होती बल्कि प्रयत्न करना पड़ता है। चिन्तन की क्रिया उद्देश्यपूर्णता की ओर अग्रसर रहती है। इसमें दिवास्वप्न या कल्पना आदि का कोई भी स्थान नहीं है। चिन्तन के द्वारा समस्या-समाधान होता है। यह मुख्य रूप से प्रतीकों पर आधारित मानसिक क्रिया है।

चिन्तन के उपकरण या साधन विभिन्न विद्वानों ने अपने अध्ययनों के आधार पर चिन्तन प्रक्रिया के आधार स्तम्भ या उपकरण को निम्नलिखित भागों में प्रस्तुत किया है-

(1) प्रतिमाएँ (Images)  मानव अनुभव प्रतिमाओं के आधार पर व्यक्त होता है। हम जो कुछ देखते हैं, करते हैं एवं सुनते हैं, सभी का आधार मन में विकसित प्रतिमा होती है। इसीलिए इनको स्मृति प्रतिमा, दृश्य प्रतिमा, कल्पना प्रतिमा आदि नाम देते हैं। ये प्रतिमाएँ वस्तु, व्यक्ति एवं विचार से निर्मित होती हैं। चिन्तन में इन्हीं को आधार बनाया जाता है।

(2) प्रत्यय (concept) – चिन्तन का महत्वपूर्ण साधन प्रत्यय भी माना जाता है। इसके द्वारा हमें सम्पूर्ण ज्ञानका बोध होता है; जैसे -हाथी शब्द को सुनकर हमारे मस्तिष्क में हाथी से सम्बन्धित संचित प्रत्यय जाग जाता है और सम्पूर्ण ज्ञान का अभ्यास होने लगता है।

(3) प्रतीक एवं चिन्ह (symbols and signs)–प्रतीक एवं चिन्ह मूक रहते हुए भी अपना अर्थ स्पष्ट या व्यक्त करने में समर्थ होते हैं। सड़क पर बने हुए प्रतीक या चिन्ह हमें सही गति एवं सुरक्षा को स्पष्ट करते हैं। इसी प्रकार गणित में + या x का चिन्ह अर्थ स्पष्ट करता है कि हमें क्या करना है?

(4) भाषा (Language) -विद्वानों ने भाषा के पीछे चिन्तन शक्ति को बतलाया है। सामाजिक विकास में भाषा संकेतों एवं इशारों से भी प्रकट होती है जैसे-मुस्कराना, भौंहें चढ़ाना तथा अँगूठा दिखाना आदि। इन सबका दैनिक जीवन में प्रयोग किया जाता है तथा बिना बोले अर्थ को लगाना या समझना प्रचलित है। इन सबके पीछे चिन्तन शक्ति है, जो अर्थों को स्पष्ट करती है।

(5) सूत्र (Formula) हमारी प्राचीन परम्परा है कि हम ज्ञान को छोटे-छोटे सूत्रों में एकत्रित करके संचित करते हैं। इसमें गणित, विज्ञान आदि के सूत्र आते हैं। भारतीय ज्ञान संस्कृत के श्लोकों में संचित है जिसकी व्याख्या से अपार ज्ञान प्रकट होता है। सूत्र को देखकर हमारी चिन्तन शक्ति उसमें निहित सम्पूर्ण ज्ञान को प्रकट करती है।

चिन्तन के प्रकार (Kinds of Thinking)चिन्तन को चार रूपों में विभाजित किया जाता है जो निम्नलिखित प्रकार से हैं-

(1) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन (Perceptual Thinking) यह वह चिन्तन है जो वस्तुओं और परिस्थितियों के प्रत्यक्षीकरण से सम्बन्धित होता है। बालक अपने चारों ओर के भौतिक और मनोवैज्ञानिक वातावरण में जिन वस्तुओं और परिस्थितियों को देखता है या प्रत्यक्षीकरण करता है उनके सम्बन्ध में जो चिन्तन होता है वह प्रत्यक्षात्मक चिन्तन कहलाता है।

(2) कल्पनात्मक चिन्तन (Imaginative Thinking) जब उद्दीपक, वस्तु या पदार्थ, उपस्थित नहीं होता है तब उसकी कल्पना की जाती है। इनके अभाव में इनकी मानसिक प्रतिमा बनाकर इन प्रतिमाओं से सम्बन्धित चिन्तन कल्पनात्मक चिन्तन कहलाता है।

(3) प्रत्ययात्मक चिन्तन (Conceptual Thinking)- यह अपेक्षाकृत अधिक उच्च प्रकार का चिन्तन है। इसकी बालकों में तभी अभिव्यक्ति होती है जब बालकों में प्रत्ययों का निर्माण प्रारम्भ होता है। एक बालक में जितने ही अधिक प्रत्यय निर्मित होते हैं उसमें उतना ही अधिक प्रत्ययात्मक चिन्तन पाया जाता है। इस प्रकार के चिन्तन को विचारात्मक चिन्तन (Ideational Thinking) भी कहते हैं। स्थान, आकार, भार, समय, दूरी और संख्या आदि सम्बन्धी प्रत्यय बालकों में प्रारम्भिक आयु स्तर पर ही बन जाते हैं। इन प्रत्ययों के सम्बन्ध चिन्तन भी प्रत्ययात्मक चिन्तन कहलाता है।

(4) तार्किक चिन्तन (LogicalThinking)– यह अपेक्षाकृत सर्वाधिक उच्च प्रकार का चिन्तन है। इसका सम्बन्ध किसी समस्या के समाधान से होता है।

चिन्तन वृद्धि के तरीके या विधियाँ (Methods of Promoting thinking)- शिक्षा में चिन्तन की उपादेयता बालकों में चिन्तन प्रवृत्ति के विकास से प्रतीत होती है। प्रारम्भिक दिनों में वस्तु के प्रत्यक्षीकरण और रटने के द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे-जैसे बालक बड़ा हेाता है, वैसे ही उसमें वस्तु, व्यक्ति एवं भाव के बीच सम्बन्ध स्थापना विकसित होनी लगती है। इससे उसका ज्ञान पूर्ण होता है। अतः अध्यापक को छात्रों में सावधानीपूर्वक चिन्तन वृद्धि के उपायों का विकास करना चाहिए। चिन्तन वृद्धि की विधियाँ निम्नवत् है-

(1) ज्ञान की गहनता (Deep Knowledge)- चिन्तन के विकास के लिये बालकों में ज्ञान के प्रति रुचि एवं लगन उत्पन्न करनी चाहिए। चिन्तन की सहायक सामग्री से विभिन्न प्रकार का ज्ञान होता है, जो चिन्तन प्रक्रिया को मजबूत एवं सफल बनाता है।

(2) भाषा की परिपक्वता (Maturity of Language) भाषा ही विचार अभिव्यक्ति का माध्यम है। बालक के चिन्तन के विकास में भाषा का अत्यधिक महत्व है। अतः शिक्षक को अपने बालकों को सही भाषा का उच्चारण, लिखना एवं वाचन करना सिखाना चाहिए। जब वे भाषा में परिपक्व हो जायेंगे तो चिन्तन प्रक्रिया में सरलता होगी।

(3) सशक्त प्रेरणा (Motivation) प्रेरणा मानव विकास में सहायक होती है। थार्नडायक महोदय ने प्रेरणा को सीखने और चिन्तन में सहायक माना है। प्रेरणा आन्तरिक होनी चाहिए ताकि बालकों का पूर्ण ध्यान एवं रुचि चिन्तन के प्रति लग सकें। इसीलिए सशक्त प्रेरणा को चिन्तन प्रणाली का प्रभावशाली तत्व माना जाता है।

(4) बौद्धिक प्रखरता (Intesity in Intelligence)  बालकों में बौद्धिक वितरण जिस औसत से होगा, चिन्तन प्रबलता भी उसी औसत से पायी जाती है। बुद्धि का विकास नहीं होता है बल्कि उसमें तीव्रता पैदा की जाती है। यही तीव्रता चिन्तन शक्ति में सकारात्मक भूमिका अदा करती है। अतः ज्ञान के द्वारा बालकों की बौद्धिक प्रखरता को तीव्र बनाना चाहिए।

(5) लगन एवं रुचि (Attention and Interest) बालक में चिन्तन शक्ति रुचि पर निर्भर होती है। जब वह किसी उद्दीपक पर ध्यान देगा एवं रुचि प्रदर्षित करेगा तो चिन्तन प्रक्रिया का प्रारम्भ स्वतः ही हो जाता है। इसलिए बालकों में कार्य के प्रति जागरूकता एवं रुचि को जागृत करना चाहिए।

(6) समस्या समाधान में स्वतन्त्रता (Free in Problem Solving) चिन्तन शक्ति का विकास करने के लिए बालकों को स्वतन्त्र छोड़ देना चाहिए। स्वतन्त्रतापूर्वक क्रिया-प्रतिक्रिया करने से बालक समस्या के प्रति अभियोजन करना सीखते हैं। उनके अन्दर रहन-सहन की विभिन्न विधियाँ विकसित करने की शक्ति उत्पन्न होती है। इस तरह प्रयत्न एवं भूल के माध्यम से समाधान की नवीन प्रक्रियाएँ जन्म लेती हैं।

(7) तर्क में परिपक्वता (Adequacy of Reasoning Process) जब हम सारगर्भित विचारों से युक्त चिन्तन का प्रयोग करते हैं तो इसे तर्क कहते हैं और जब अशुद्ध चिन्तन प्रस्तुत करते हैं तो कुतर्क कहलाता है। बालकों में सारयुक्त चिन्तन का विकास तर्क के द्वारा ही सम्भव है। तर्क सही एवं गलत में अन्तर स्पष्ट करता है, जो सही चिन्तन को जन्म देता है।

(8) समस्या प्रस्तुत करना (Problem Presentation) बालकों की चिन्तन शक्ति का विकास करने के लिये समस्याएँ उत्पन्न करनी चाहिए। ये समस्याएँ बालको के समक्ष इस प्रकार से रखी जायें जैसे वातावरण से स्वतः उत्पन्न हुई हैं। बालक स्वतः ही क्रियाशील होकर चिन्तन करके समस्या का हल खोजेंगे। इसीलिये रूसो ने अध्यापक को पर्दे के पीछे रहने को कहा था। अध्यापक छात्रों को मार्ग-दर्शन देता है और उसी आधार पर वे अपना विकास करते हैं। इस प्रकार से बालक जीवन के प्रति आशावान हो जाते हैं और समस्याओं के प्रति सावधान।

तर्क

 तर्क का अर्थ (Meaning of Reasoning)  तर्क एक अव्यक्त क्रिया है, जिसका प्रकटीकरण समस्या-समाधान व्यवहार से होता है। सामान्य जीवन में तर्क-शक्ति का प्रयोग स्वाभाविक रूप से होता है। हमें किसी भी अतिरिक्त शक्ति का प्रयोग नहीं करना पड़ता। इसीलिए इसे उच्च मानसिक क्रिया कहा जाता है। साक्षात्कार या परीक्षा के समय तर्क द्वारा दिये गये उत्तर अधिक स्पष्ट एवं बौद्धिक क्षमता के परिचायक होते है। अतः तर्क वह प्रक्रिया है, जो उपस्थित समस्या के लिये उपयुक्त हल प्रस्तुत करते हैं, ताकि समस्या का हल शीघ्र प्राप्त हो जाये।

परिभाषाएँ-

(1) गैरेट के अनुसार- ‘‘मन में किसी उद्देश्य एवं लक्ष्य को रखकर क्रमानुसार चिन्तन करना तर्क है।‘‘

(2) वुडवर्थ के शब्दों में- ‘‘तर्क में (तथ्यों एवं सिद्धान्तों) जो स्मृति या वर्तमान निरीक्षण द्वारा प्राप्त होते हैं- को परस्पर मिलाया जाता है, फिर उस मिश्रण का परीक्षण में से निष्कर्ष निकाला जाता है।‘‘

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि तर्क शक्ति का प्रारम्भ लक्ष्य प्राप्ति के लिये होता है। इसका प्रारम्भ प्रतिक्रिया की शिथिलता से भी होता है। तर्क में पूर्व ज्ञान, पूर्व अनुभव तथा पूर्व अनुभूतियों का विश्लेषण किया जाता है। इससे समस्या-समाधान की नवीन विधियों का जन्म होता है। तर्क में किसी घटना के कारण को खोजा जाता है। इसमें सीखने की विभिन्न विधियों ‘‘प्रयत्न एवं भूल‘‘, सूझ द्वारा, अनुकरण द्वारा, साहचर्य द्वारा आदि का सहारा लिया जाता है। ये विधियाँ क्रमवार प्रयोग की जाती है। अतः जब तक समस्याएं हैं, तर्क का प्रयोग होता रहेगा।

तर्क का प्रकार (Kinds of Reasoning) तर्क को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है, जिसका वर्णन निम्नलिखित है-

(1) आगमन तर्क (2) निगमन तर्क

(1) आगमन तर्क (Inductive Reasoning) इस तर्क में व्यक्ति अपने अनुभवों या अपने द्वारा संकलित तथ्यों के आधार पर किसी सामान्य नियम या सिद्धान्त का निरूपण करता है। इसमें वह तीन स्तरों से होकर गुजरता है-निरीक्षण, परीक्षण और सामान्यीकरण। जैसे -जब माँ घर लौटने पर बच्चे को रोता हुआ पाती है, तब वह उसके रोने के कारणों की खोज करके इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि वह भूख के कारण रो रहा है। इस प्रकार इस विधि में हम विशिष्ट सत्य से सामान्य सत्य की ओर अग्रसर होते है।

(2) निगमन तर्क (Deductive Reasoning) इस तर्क में व्यक्ति दूसरों के अनुभवों, विश्वासों या सिद्धान्तों का प्रयोग करके सत्य का परीक्षण करता है। जैसे, माॅ को इस सिद्धान्त में विश्वास है, तो वह बच्चे को रोता देखकर तुरन्त इस निष्कर्ष पर पहुँच जाती है कि उसे भूख लगी है और इसलिए उसे दूध पिला देती है। इस प्रकार इस विधि में हम एक सामान्य सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं और उसे नवीन परिस्थितियों में प्रयोग करके सिद्ध करते हैं।

वास्तव में ये दोनों तर्क एक-दूसरे के विरोधी जान पड़ते है पर वास्तव में ऐसा नहीं है। ये तर्क कही जाने वाली एक ही क्रिया के अन्तर्गत दो प्रतिक्रियों है।

तर्क विकास की विधियाँ (Methods of Reasoning Development) तर्क प्रक्रिया का प्रयोग वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिये शिक्षा में किया जाता है। इससे जो निष्कर्ष ज्ञात होते हैं वे जन-सामान्य के लिये लाभदायक सिद्ध होते हैं। अतः बालकों में तर्कशक्ति के विकास के लिए निम्नलिखित विधियाँ हैं

दृढ़ निश्चय (Firm Determination) शिक्षक को बालकों में आत्म-विश्वास की भावना की वृद्धि करनी चाहिए जिससे वे जीवन के लक्ष्यों को पूरा करने का दृृढ़ निश्चय कर सकें। दृढ़ निश्चय से लगन, बुद्धि, उत्साह, क्रियाशीलता एवं आत्म-विश्वास विकसित होता है, जो तर्कशक्ति का आधार है।

स्वाभाविकता का विकास (Development of Naturality) बालकों को तर्क की प्रेरणा आपसी बातचीत से मिलती है। परिवार के सदस्यगण जब आपस में विचार-विमर्श करते हैं तो बालक भी अपनी राय देते हैं। हमें उनकी राय को नकारना नहीं चाहिए बल्कि उनकी स्वाभाविकता की प्रशंसा करनी चाहिए। इस प्रकार से विभिन्न रायों मे से एक राय समस्या का समााधान करती है, जो

बालकों के मस्तिष्क की उपज होती है। इसीलिए विद्वानों ने तर्क प्रक्रिया को बढ़ावा देने के लिये आगमन विधिको अधिक उपयुक्त माना है।

क्रमागत ज्ञान (Systematic Knowledge) बालकों को सदैव व्यवस्थित या क्रमबद्ध तरीके से चरणों में ज्ञान देना चाहिए, ताकि वे सभी चरणों को भलीभाँति समझ सकें। साथ ही उनके समक्ष समस्या प्रस्तुत करना चाहिए और चरणों का व्यावहारिक प्रयोग करना सिखाना चाहिए। इस तरह बच्चे तर्क की ओर प्रेरित होगें।

सूझ-शक्ति का प्रयोग (Use of Insight) तर्क, सूझ की शक्ति और पूर्वानुभवों पर निर्भर करती है। हमें सूझ एवं पूर्व अनुभवों का सही प्रयोग करना बच्चों को सिखाना चाहिए। जब बच्चे किसी समस्या का समधान पूर्व ज्ञान के द्वारा नहीं कर पाते हैं, तो वे सूझशक्ति का प्रयोग करेंगे। इस प्रकार स्वयं के मानसिक चिन्तन द्वारा समस्या-समाधान किया जा सकता है, जो सूझ का परिणाम होता है।

 

                                       कुलदीप सारस्वत

 

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